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कविता

कई बार

लीलाधर जगूड़ी


एक जीना जग जाहिर
एक जीना चुपचाप
दो-दो प्रकार से जीना पड़ता है एक जीवन
कई बार

अकस्‍मात एक दिन खत्‍म होने से पहले
अँजुली भर पानी में
सिकुड़ते आकाश की तड़प की तरह
जीना और समाना पड़ता है कई बार
रिसना पड़ता है उड़ जाना पड़ता है
छीजना पड़ता है कई बार

मिट्टी के गुण का शिकार
हवा के गुण का शिकार
पानी के गुण का शिकार
जीवन में जीवन का शिकार होना पड़ता है
कई बार।

 


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